स्कूलों
को ढहाकर खड़ी कर दी गई हैं
बहुमंजिला
इमारतें
खेल
के मैदान धीरे-धीरे
अतिक्रमित
किए जा चुके हैं
नालों
को पाटकर रातों-रात
बना
दी गई हैं दुकानें
और
इस तरह आधी बारिश में ही
बह
जाता हैे पूरे का पूरा शहर।
आइडिया
और एटीएम के
चमकते
बोर्डों के बीच घरों के नाम पर
अब
घरों के ठिठके हुए
दरवाजे
भर दिखायी देते हैं।
बाजार
ने लील लिया है सब कुछ
बचपन, पड़ोस
और मुहल्ले।
समाज
की जरा-सी रोशनी
या
मनुष्यता की थोड़ी-भी गंध भीतर आ सके
किसी
मकान में अब ऐसी कोई खिड़की
या
एक रोशनदान तक नहीं बचा।
कितना
विडम्बनापूर्ण है यह सच
कि
औजारों से शुरू हुई मानव सभ्यता में
हम
खुद आज एक औजार बन गए हैं।
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