वे अब दरवाजों अथवा खिड़कियों में
शायद कभी-कभार भी नहीं लगतीं।
मेरे बचपन के लेकिन कोई भी किवाड़ या पल्ले
बिना गिट्टक कभी खुल ही नहीं पाते थे।
खिड़की तो खुली ही कायदे से तभी कही जाती थी
कि जब गिट्टक ठीक से लगी हो।
इतनी प्रभावी और जरूरी हो गयी थीं तब गिट्टकें
कि अक्सर वे हमारे आचरण तक भी आने लगी थीं।
लेकिन अब गिट्टकों की जगह
न दरवाजे-खिड़कियों की चौखटों में बची है
और न ही कहीं जीवन की देहरियों में ।
गिट्टकों की यह अनुपस्थिति
प्रकारान्तर और दुर्भाग्य से
हमारे घर, पड़ोस
और समय की
दुखद अनुपस्थिति भी बन गयी है।
जीवन की गंध से लगातार रिक्त होते जा रहे
और टीसते हुए इस समय में भी लेकिन
अक्सर लगता है कि कई बूढ़ी चौखटें अब भी
उन पुरातन गिट्टकों की बाट जोहती हैं,
जो कभी
हमारे समय को जीवन से समृद्ध करती थीं।- डाॅ. श्रीकान्त पाण्डेय
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