2018 - Dr. Srikant Pandey

Wednesday, 26 December 2018

समय
5:09 pm0 Comments


     इस समय के अनेकानेक पर्याय हैं। कुल मिलाकर इसे कमतरी का समय माना गया है। बीते हुए में रिश्तों की सान्द्रता, पड़ोस की उपस्थिति जैसे सन्दर्भों के बरक्स इसे अभावग्रस्त समय बताया जाता है। मुझे लेकिन यह विलोपता का समय जान पड़ता है। अभाव में न होने और अनुपस्थिति का तत्व प्रधान होता है, जबकि विलोपता में हमारे पास होता तो है लेकिन हम उसे असन्दर्भित और अनछुआ रहने देते हैं। अभाव में कारण बाहरी होते हैं, विलोपता में हम स्वयं एक कारण बन जाते हैं। जीवन में शब्दों और मूल्यों का विलोप करने को हम उद्यत-तत्पर और सजग होते जा रहे हैं। जीवन में बैकफुट का वह मतलब नहीं होता, जो क्रिकेट में होता है। क्रिकेट तक में बैकफुट का असल मतलब वह नहीं होता, जो लिया जाता है। बैकफुट पर ही कट, हुक और पुल जैसे आक्रामक शॉट मिल पाते हैं। बैक फुट का अर्थ पीछे हटना नहीं, धार पैनी करना है ।
                                                                         - डॉ. श्रीकान्त पाण्डेय

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Friday, 21 December 2018

आधी बारिश में बहता हुआ पूरा शहर
2:07 pm0 Comments


स्कूलों को ढहाकर खड़ी कर दी गई हैं
बहुमंजिला इमारतें

खेल के मैदान धीरे-धीरे
अतिक्रमित किए जा चुके हैं

नालों को पाटकर रातों-रात
बना दी गई हैं दुकानें

और इस तरह आधी बारिश में ही
बह जाता हैे पूरे का पूरा शहर।

आइडिया और एटीएम के
चमकते बोर्डों के बीच घरों के नाम पर
अब घरों के ठिठके हुए
दरवाजे भर दिखायी देते हैं।

बाजार ने लील लिया है सब कुछ
बचपन, पड़ोस और मुहल्ले।

समाज की जरा-सी रोशनी
या मनुष्यता की थोड़ी-भी गंध भीतर आ सके
किसी मकान में अब ऐसी कोई खिड़की
या एक रोशनदान तक नहीं बचा।

कितना विडम्बनापूर्ण है यह सच
कि औजारों से शुरू हुई मानव सभ्यता में
हम खुद आज एक औजार बन गए हैं।

                                         - डाॅ. श्रीकान्त पाण्डेय
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Monday, 17 December 2018

समाज
11:33 am0 Comments

     


     




     



     जो उद्दण्ड है, वही समाहत है ।
     एक साझा संस्कृति-सी है ।
     आदिम युगीन ! पहली आग पत्थरों की रगड़ से जलायी गयी थी ।
     आग का तरीका वही है । आज भी ।
     बस पत्थरों की जगह इंसानों का इस्तेमाल किया जाने लगा है ।
     पुरातन अग्नि मूलतः भोजन पकाने के काम में लायी जाती थी ।
     आज की आग बहुउद्देश्यीय है ।
     हमने अपने सारे उद्देश्य आग को ही समर्पित कर रखे हैं।
     त्योहार कैसे मनेंगे, यह तय भी अब व्यक्ति नहीं, बाजार करता है ।


                                                            डाॅ. श्रीकान्त पाण्डेय
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Wednesday, 12 December 2018

गिट्टकें
12:25 pm0 Comments
















वे अब दरवाजों अथवा खिड़कियों में
शायद कभी-कभार भी नहीं लगतीं।

मेरे बचपन के लेकिन कोई भी किवाड़ या पल्ले
बिना गिट्टक कभी खुल ही नहीं पाते थे।

खिड़की तो खुली ही कायदे से तभी कही जाती थी
कि जब गिट्टक ठीक से लगी हो।

इतनी प्रभावी और जरूरी हो गयी थीं तब गिट्टकें
कि अक्सर वे हमारे आचरण तक भी आने लगी थीं।

लेकिन अब गिट्टकों की जगह
न दरवाजे-खिड़कियों की चौखटों में बची है
और न ही कहीं जीवन की देहरियों में ।

गिट्टकों की यह अनुपस्थिति
प्रकारान्तर और दुर्भाग्य से
हमारे घर, पड़ोस और समय की
दुखद अनुपस्थिति भी बन गयी है।

जीवन की गंध से लगातार रिक्त होते जा रहे
और टीसते हुए इस समय में भी लेकिन
अक्सर लगता है कि कई बूढ़ी चौखटें अब भी
उन पुरातन गिट्टकों की बाट जोहती हैं,
जो कभी हमारे समय को जीवन से समृद्ध करती थीं।

- डाॅ. श्रीकान्त पाण्डेय
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Monday, 10 December 2018

सांकल
11:28 am0 Comments

       

            सूनी देर रात में
            या एकदम सुबह-सबेरे
            या तपती अकेली दुपहरी में
            अब कहीं कोई सांकल नहीं बजती।
             
            हमारे बचपन के दिनों में शंख की तरह
            वह अक्सर बजा करती थी।

            किवाड़ों में अब सांकल तो क्या
            उसकी चार इंच की जगह तक नहीं बची।

            सांकल के न बजनेे से
            अब न कोई पड़ोस चौंकता है
            न भीतर ऊंघते किसी बरामदे से
            कोई आहट निकलती है
            न कोई मुहल्ला अब करवट बदलता है।

            वैसे भी अब कहां कोई कहीं आता-जाता है
            कहां किसी को अब किसी की प्रतीक्षा है !

            एक पुरातन और पवित्र सांकल ने
            खो दी है अपनी ध्वनि और अस्तित्व
            और हमने खो दिया है
            पुकारने और प्रतीक्षा करने का अपना अभ्यास !


                                                            डाॅ. श्रीकान्त पाण्डेय
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